13-04-81  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन

"रूहे-गुलाब की विशेषता सदा रूहानी वत्ति"

आज बागवान अपने रूहे-गुलाब बच्चों को देख रहे हैं। चारों ओर के रूहे गुलाब बच्चे बापदादा के सम्मुख हैं। साकार में चाहे कहाँ भी बैठे हैं ( आज आधे भाई बहन नीचे मुरली सुन रहे हैं) लेकिन बापदादा उन्हों को भी अपने नयनों के सामने ही देख रहे हैं। अभी भी बापदादा बच्चों के संकल्प को सुन रहे हैं। सभी सम्मुख मुरली सुनने चाहते हैं लेकिन नीचे होते हुए भी बापदादा बच्चों को सामने देख रहे हें। हरेक रूहे-गुलाब की खुशबू बापदादा के पास आ रही है। हैं तो सब नम्बरवार लेकिन इस समय सभी एक बाप दूसरा न कोई इसी रूहानी खुशबू में नम्बरवन स्थिति में हैं। इसलिए रूहानी खुशबू वतन तक भी पहुँच रही है। रूहानी खुशबू की विशेषताएं जानते हो? किस आधार पर रूहानी खुशबू सदाकाल एकरस और दूर दूर तक फैलती है अर्थात् प्रभाव डालती है? इसका मूल आधार है रूहानी वृत्ति। सदा वृत्ति में रूह, रूह को देख रहे हैं, रूह से ही बोल रहे हैं। रूह ही अलग अलग अपना पार्ट बजा रहे हैं। मैं रूह हूँ, सदा सुप्रीम रूह की छत्रछाया में चल रहा हूँ। मैं रूह हूँ - हर संकल्प भी सुप्रीम रूह की श्रीमत के बिना नहीं चल सकता है। मुझ रूह का करावनहार सुप्रीम रूह है। करावनहार के आधार पर मैं निमित्त करने वाला हूँ। मैं करनहार वह करावनहार है। वह चला रहा, मैं चल रहा हूँ। हर डायरेक्शन पर मुझ रूह के लिए संकल्प, बोल और कर्म में सदा हजूर हाजिर हैं। इसलिए हजूर के आगे सदा मुझ रूह की जी हजूर है। सदा रूह और सुप्रीम रूह कम्बाइन्ड हूँ। सुप्रीम रूह मुझ के बिना रह नहीं सकते और मैं भी सुप्रीम रूह के बिना अलग नहीं हो सकता। ऐसे हर सेकेण्ड हजूर को हाजिर अनुभव करने वाले सदा रूहानी खुशबू में अविनाशी और एकरस रहते हैं। यह हैं नम्बरवन खुशबूदार रूहे-गुलाब की विशेषता।

 ऐसे की दृष्टि में भी सदा सुप्रीम रूह समाया हुआ होगा। वह बाप की दृष्टि में और बाप उनकी दृष्टि में समाया हुआ होगा। ऐसे रूहेगुलाब को देह वा देह की दुनिया वा पुरानी देह की दुनिया की वस्तु, व्यक्ति देखते हुए भी नहीं दिखाई देंगे। देह द्वारा बोल रहा हूँ लेकिन देखता रूह को है, बोलता रूह से है। क्योंकि उनके नयनों की दुनिया में सदा रूहानी दुनिया है, फरिश्तों की दुनिया है, देवताओं की दुनिया है। सदा रूहानी सेवा में रहते। दिन है वा रात है लेकिन उनके लिए सदा रूहानी सेवा है। ऐसे रूहे-गुलाब की सदा रूहानी भावना रहती कि सर्व रूहें जमारे समान वर्से के अधिकारी बन जाएं। परवश, आत्माओं को बाप द्वारा प्राप्त हुई शक्तियों का सहयोग दे उन्हों को भी अनुभव करावें। किसी की भी कमजोरी और कमी को नहीं देखेंगे। अपने धारण किये हुए गुणों का, शक्तियों का सहयोग देने वाला दाता बनेंगे। ब्राह्मण परिवार के लिए सहयोगी, अन्य आत्माओं के लिए महादानी। यह ऐसा है, यह भावना नहीं। लेकिन इसको भी बाप समान बनाऊं, यह शुभ भावना। साथ साथ यही श्रेष्ठ कामना। यह सर्व आत्मायें कंगाल, दु:खी, अशान्त से सदा शान्त, सुख-रूप मालामाल बन जाएं। सदा स्मृति में एक ही धुन होगी कि विश्व परिवर्त्तन जल्दी से जल्दी कैसे हों - इसको कहा जाता है रूहे-गुलाब।

आज महाराष्ट्र का टर्न है। महाराष्ट्र वाले सदा एक ही महा शब्द को याद रखें तो सब महान अर्थात् नम्बरवन बन जाएं। महाराष्ट्र वालों का क्या लक्ष्य है? महान बनना। स्व को भी महान बनाना है, विश्व को भी महान बनाना है। यही सदा स्मृति में रहता है ना!

और कर्नाटक वाले सदा नाटक में हीरो पार्ट बजाने वाले हैं। बनना भी हीरो है, बनाना भी हीरो है। आंध्रा अर्थात् अन्धियारा मिटाने वाले। सब प्रकार का अंधेरा। आंध्रा में गरीबी का अंधकार भी ज्यादा है। तो गरीबी को मिटाए सर्व को सम्पन्न बनाना है। तो आंध्रा वाले विश्व को सदा साहूकार बनाने वाले हैं। जो न तन की गरीबी, न धन की गरीबी, न मन के शक्तियों की गरीबी। तन-मन-धन तीनों ही गरीबी को मिटाने वाले। इस अंधकार को मिटाकर सदा रोशनी लाने वाले। तो आंध्रा निवासी हो गये - मास्टर ज्ञान सूर्य। मद्रास अर्थात् सदा रास में मगन रहने वाले। संस्कार मिलन की भी रास, खुशी की भी रास। और फिर स्थूल में भी रास करने वाले। मद - मगन को भी कहा जाता है। तो सदा इसी रास में मगन रहने वाले। समझा सभी का आक्यूपेशन क्या है। अब तो सबसे मिले ना। मिलना अर्थात् लेना। तो ले लिया ना। आखिर तो नयन मुलाकात तक पहुँचना है। बापदादा के लिए नीचे वा ऊपर बैठे हुए सब वी.आई.पी. हैं।

टीचर्स के साथ- बापदादा सर्व निमित्त बने हुए सेवाधारियों को किस रूप में देखना चाहते हैं, यह जानते हो? बापदादा सर्व सेवाधारि यों को सदा अपने समान, जैसे बाप कर्त्तव्य के कारण अवतरित होते हैं वैसे हर सेवाधारी सेवा के प्रति अवतरित होने वाले सब अवतार बन जाएं। एक अवतार ड्रामा अनुसार सृष्टि पर आता तो कितना परिवर्त्तन कर लेता। वह भी आत्मिक शक्ति वाले और यह इतने परमात्म-शक्तिस्वरूप चारों ओर अवतार अवतरित हो जाएं तो क्या हो जायेगा? सहज परिवर्त्तन हो जायेगा। जैसे बाप लोन लेता है, बंधन में नहीं आता, जब चाहे आये, जब चाहे चलें जायें, निर्बन्धन है। ऐस्ो सब सेवाधारी शरीर के संस्कारों के, स्वभाव के बधनों से मुक्त, जब चाहें जैसे चाहें वैसा संस्कार अपना बना सकें। जैसे देह को चलाने चाहें वैसे चला सकें। जैसा स्वभाव बनाने चाहे वैसा बना सकें। ऐसा नहीं कि मेरा स्वभाव ही ऐसा है, क्या करूँ? मेरा संस्कार,मेरा बंधन ऐसा है नहीं। लेकिन ऐसे निर्बन्धन जैसे बाप निर्बन्धन है। कई सोचते हैं हम तो जन्म-मरण के चक्र के कारण शरीर के बंधन में हैं, लेकिन यह बंधन है क्या? अब तो शरीर आपका है ही नहीं, फिर बंधन आपका कहाँ से आया? जब मरजीवा बन गये तो शरीर किसका हुआ? तनमन- धन तीनों अर्पण किया है या सिर्फ दो को अर्पण किया, एक को नहीं। जब मेरा तन ही नहीं, मेरा मन ही नहीं तो बंधन हो सकता है। यह भी कमजोरी के बोल हैं - क्या करें जन्म जन्म के संस्कार हैं, शरीर का हिसाब किताब है। लेकिन अब पुराने जन्म का पुराना खाता संगमयुग पर समाप्त हुआ। नया शुरू किया। अभी उधर का पुराना रजिस्टर समाप्त हुआ। नया शुरू किया। अभी उधर का पुराना रजिस्टर समाप्त हो गया या अभी तक सम्भाल कर रखा है? खत्म नहीं किया है क्या? तो समझा बापदादा क्या देखना चाहते हैं?

इतने सब अवतार प्रकट हो जाएं तो सृष्टि पर हलचल मच जायेगी ना! अवतार अर्थात् ऊपर से आने वाली आत्मा। मूलवतन की स्थिति में स्थित हो ऊपर से नीचे आओ। नीचे से ऊपर नहीं जाओ। है ही परमधाम निवासी आत्मा, सतोप्रधान आत्मा। अपने आदि, अनादि स्वरूप में रहो। अन्त की स्मृति में नहीं रहो अनादि, आदि फिर क्या हो जायेगा? स्वयं भी निर्बन्धन और जिन्हों की सेवा केनिमित्त बने हो वह भी निर्बन्धन हो जायेंगे। नहीं तो वह भी कोई न कोई बंधन में बंध जाते हैं। स्वयं निर्बन्धन अवतरित हुई आत्मा समझ कर कर्म करो, तो और भी आपको फालो करेंगे। जैसे साकार बाप को देखा, क्या याद रहा? बाप के साथ मैं भी कर्मातीत स्थिति में हूँ या देवताई बचपन रूप में। अनादि, आदि रूप सदा स्मृति में रहा तो फालो फादर। टीचर्स से पूछने की जरूरत ही नहीं कि सन्तुष्ट हो। टीचर से पूछना माना टीचर की इनसल्ट करना। इसलिए बापदादा इनसल्ट तो नहीं कर सकते। बाप समान निमित्त हो। निमित्त का अर्थ ही है - सदा करन-करावनहार के स्मृति स्वरूप। यही स्मृति समर्थ स्मृति है। करनहार हूँ लेकिन करन-करावनहार के आधार पर करनहार हूँ। निमित्त हूँ लेकिन निमित्त बनाने वाले को भूलना नहीं। मैं-पन नहीं, सदा बापदादा ही मुख में, मन में, कर्म में रहे - यही पाठ पक्का है ना!

पार्टियों के साथ –

1. अमृतवेले से लेकर रात तक जो भी बाप ने श्रेष्ठ मत दी है उसी मत के अनुसार सारी दिनचर्या व्यतीत करते हो? उठना कैसे है, चलना कैसे है, खाना कैसे है, कार्य व्यवहार कैसे करना है, सबके प्रति श्रेष्ठ मत मिली हुई है। उसी श्रेष्ठ मत के प्रमाण हर कार्य करते हो?

 हर कर्म करते हुए अपनी स्थिति श्रेष्ठ रहे उसके लिए कौन सा एक शब्द सदा स्मृति में रखो - ट्रस्टी। अगर कर्म करते ट्रस्टीपन की स्मृति रहे तो स्थिति श्रेष्ठ बन जायेगी। क्योंकि ट्रस्टी बनकर चलने से सारा ही बोझ बाप पर पड़ जाता है, आप सदा डबल लाइट बन जाते। डबल लाइट होने के कारण हाई जम्प दे सकते हो। अगर गृहस्थी समझते तो दुम्ब लग जाता। सारा बोझ अपने पर आ जाता। बोझ वाला हाई जम्प दे नहीं सकता। और ही साँस फूलता रहेगा। ट्रस्टी समझने से स्थिति सदा ऊंची रहेगी। तो सदा ट्रस्टी होकर रहने की श्रेष्ठ मत को स्मृति में रखो।

2. बापदादा द्वारा सभी बच्चों को कौन सी नम्बरवन श्रीमत मिली हुई है? नम्बरवन श्रीमत है कि अपने को आत्मा समझो और आत्मा समझकर बाप को याद करो। सिर्फ आत्मा समझने से भी बाप की शक्ति नहीं मिलेगी। याद न ठहरने का कारण ही है कि आत्मा समझकर याद नहीं करते हो। आत्मा के बजाए अपने को साधारण शरीरधारी समझकर याद करते हो। इसलिए याद टिकती नहीं। वैसे भी कोई दो चीजों को जब जोड़ा जाता है तो पहले समान बनाते हैं। ऐसे ही आत्मा समझकर याद करो तो याद सहज हो जायेगी, क्योंकि समान हो गये ना! यह पहली श्रीमत ही प्रैक्टिकल में सदा लाते रहो। यही मुख्य फाउन्डेशन है। अगर फाउन्डेशन कच्चा होगा तो आगे चढ़ती कला नहीं हो सकती। अभी अभी चढ़ती कला, अभी अभी नीचें आ जायेंगे। मकान का भी फाउन्डेशन अगर पक्का न हो तो दरार पड़ जाती है या गिर जाता है। ऐसे ही अगर यह फाउन्डेशन मजबूत नहीं तो माया नीचे गिरा देगी। इसलिए फाउन्डेशन सदा पक्का। सहज बात के ऊपर भी बार-बार अटेन्शन। अगर अटेन्शन नहीं देते तो सहज बात भी मुश्किल हो जाती।

3. सदा यह नशा रहता है कि हम ही कल्प-कल्प के अधिकारी आत्मायें हैं हम ही थे हम ही हैं, हम ही कल्प कल्प होंगे। कल्प पहले का नजारा ऐसे ही स्पष्ट स्मृति में आता है? आज ब्राह्मण हैं, कल देवता बनेंगे। हम ही देवता थे यह नशा रहता है? हम सो, सो हम यह मंत्र सदा याद रहता है? इसी एक नशे में रहो तो सदा जैसे नशे में सब बातें भूल जाती हैं, संसार ही भूल जाता है, ऐसे इस में रहने से यह पुरानी दुनिया सहज ही भूल जायेगी। ऐसी अपनी अवस्था अनुभव करते हो? तो सदा चेक करो - आज ब्राह्मण कल देवता, यह कितना समय नशा रहा। जब व्यवहार में जाते तो भी यह नशा कायम रहता कि हल्का हो जाता है? जो जैसा होता है उसको वह याद रहता है। जैसे प्रेजीडेन्ट है वह कोई भी काम करते यह नहीं भूलता कि मैं प्रेजीडेन्ट हूँ। तो आप भी सदा अपनी पोजीशन याद रखो। इससे सदा खुशी रहेगी, नशा रहेगा। सदा खुमारी चढ़ी रहे। हम ही देवता बनेंगे, अभी भी ब्राह्मण चोटी हैं, ब्राह्मण तो देवताओं से भी ऊंच है। इस नशे को माया कितना भी तोड़ने की कोशिश करे लेकिन तोड़ न सके। माया आती तभी है जब अकेला कर देती है। बाप से किनारा करा देती है। डाकू भी अकेला करके फिर वार करते हैं ना। इसलिए सदा कम्बाइन्ड रहो कभी भी अकेले नहीं होना। मैं और मेरा बाबा - इसी स्मृति में कम्बाइन्ड रहो।

4. सभी अपने को महान भाग्यशाली समझते हो ना? देखो कितना बड़ा भाग्य है जो वरदान भूमि पर वरदानों से झोली भरने के लिए पहुँच गये हो। ऐसा भाग्य विश्व में कितनी आत्माओं का है? कोटों में कोई और कोई में भी कोई! तो यह खुशी सदा रखो कि जो सुनते थे, वर्णन करते थे, कोटों में कोई, कोई में भी कोई आत्मा, वह हम ही है। इतनी खुशी है? सदा इसी खुशी में नाचते रहो - वाह मेरा भाग्य! यही गीत गाते रहो और इसी गीत के साथ खुशी में नाचते रहो। यह गीत गाना तो आता है ना - वाह रे मेरा भाग्य और वाह मेरा बाबा! वाह ड्रामा वाह! यह गीत गाते रहो। बहुत लकी हो। बाप तो सदा हर बच्चे को लवली बच्चा ही कहते हैं। तो लवली भी हो, लकीएस्ट भी हो। कभी अपने को साधारण नहीं समझना, बहुत श्रेष्ठ हो। भगवान आपका बन गया तो और क्या चाहिए! जब बीज को अपना बना दिया तो वृक्ष तो आ ही गया ना! तो सदा इसी खुशी में रहो। आपकी खुशी को देख दूसरे भी खुशी में नाचते रहेंगे।